veswa prchalit chikitya
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छुप गया कोई रे, दूर से पुकार के (चम्पाकली - १९५७)
छुप गया कोई रे, दूर से पुकार के (चम्पाकली - १९५७)
संगीतकार : हेमंत कुमार
गीतकार : राजिंदर कृष्ण
गायक: लता मंगेशकर
गीतकार : राजिंदर कृष्ण
गायक: लता मंगेशकर
छुप गया कोई रे, दूर से पुकार के ।
दर्द अनोखे हाय, दे गया प्यार के ।।
छुप गया ...
दर्द अनोखे हाय, दे गया प्यार के ।।
छुप गया ...
आज
हैं सूनी सूनी, दिल की ये गलियाँ ।
बन गईं काँटे मेरी, खुशियों की कलियाँ ।।
प्यार भी खोया मैने, सब कुछ हार के ।
दर्द अनोखे हाय, दे गया प्यार के ।।
छुप गया ...
बन गईं काँटे मेरी, खुशियों की कलियाँ ।।
प्यार भी खोया मैने, सब कुछ हार के ।
दर्द अनोखे हाय, दे गया प्यार के ।।
छुप गया ...
अँखियों
से नींद गई, मनवा से चैन रे ।
छुप छुप रोए मेरे, खोए खोए नैन रे ।।
हाय यही तो मेरे, दिन थे सिंगार के ।
दर्द अनोखे हाय, दे गया प्यार के ।।
छुप गया ...
छुप छुप रोए मेरे, खोए खोए नैन रे ।।
हाय यही तो मेरे, दिन थे सिंगार के ।
दर्द अनोखे हाय, दे गया प्यार के ।।
छुप गया ...
Wednesday 28 December 2016
शराबी
शराबी
हिन्दी शब्दों व व्याकरण का पूर्ण ज्ञान न होने के कारण शब्दों के उधेडबुन का दु:साहस शायद मुक्ष में इसलिये भी न था कि कही शब्द विन्यासों की श्रृखला में कोई ऐसा अर्थहीन रंग न भर जाये कि सारी रचना ही परिहास का करण बन जाये, इसलिये कभी कभी मन के भावों को कागज में उतारने के प्रयासों में कई बार असफल हो जाता हूं ।
मन के विचारों को किसी कथा या रचना में बांधना
कितना कठिन कार्य है, यह तो एक रचनाकार ही बतला सकता है । हमारे आस पास ही कितनी
घटनायें कथा कहानियॉ बिखरी पडी रहती है, और हम जीवन की यर्थाथ सच्चाई से कितने
अनभिज्ञ बने अपनी कल्पनाओं के पात्र व घटनाओं को सूत्रों में बाधने के प्रयासों
में कभी कभी सच्चाई व मौलिकता से इतना दूर होते चले जाते है कि कभी कभी कहानियों
की घटनाओं व पात्रों में वह स्वाभाविकता की सौंधी गंध नही होती, जो यर्थाथ घटनाओं
की स्वाभाविकता में हुआ करती है । एक लम्बे समय से किसी कहानियों की घटनाओं को
बुनने के असफल प्रयासों में कभी कभी घटनायें अपनी स्वाभाविकता खो देती है , तो
कभी कभी कथा के पात्र मूल कथा कहानी से दूर होते चले जाते है ।
विधि के विधान को कौन बदल सकता था , कालचक्र के
क्रूर पहिये सुख दुख ,मिलन ,बिछोर लिये निरंतर धूमते रहे । अपने नाम के विरूद्ध
सजा काटते सुखीलाल की अवस्था पूरे पचास वर्ष के आस पास हो चली थी , विगत कई वषों
से मृत्यु दण्ड की सजा जो उच्च न्यायालय के आदेशों से अजन्म कारावास की सजा
में बदल गई थी ,भुगत रहे थे । इस काल कोठरी में कैसे बसन्त आई ,कब सावन बरसा
,होली दिवाली कब आई और चली गयी कुछ पता न चलता , यदि कुछ था तो केवल इतना कि सुबह
जेल की घंटी के साथ उठना ,कैदीयों के साथ सामूहिक सुबह के कार्यों से निर्वत होकर
कैदियों की कतार में खडे होकर जेल अधिकारीयों के आदेशों का पालन करते करते पूरा
दिन बीत जाता , फिर रात होती ,फिर सुबह होती चली जाती , बस यू ही जिन्दगी बीतती
गई ।
न दिन अपना था ,न रात ,न जीवन
अपना था , न मन से कुछ कर सकते थे ।
कब सुखीलाल चौबे को शराब की बुरी लत लगी ,यह
तो उस करमजले को भी शायद मालूम न था । यदि कुछ याद था भी , तो इस अभागे करमजले को
अपने अतीत के पश्चाताप भरी यादे जिसे सुनातें हुऐ सुखीलाल को अपने कर्मों पर ऐसा
पस्तावा होता जिसकी भरपाई शायद इस जन्म में तो शायद संभव न थी । जीवन का जो पल
बीत गया जिसे नशे की बुरे व्यसन में पड अपने दुष्कमों से खो दिया उसकी पूर्ति तो
शायद अब इस जन्म में होना संभव न थी ।
सुखी की शादी आज से 25 – 30 वर्ष
पहले हुई थी नयी नवेली दुल्हन जाने क्या क्या अरमान लेकर ममता का आंचल , बाबूल
का घर छोड ,अपनी गली चौराहे ,अपना अंगना
भूलकर सुखी के साथ जीवन संगनी बन गृहस्थ जीवन में प्रवेश किया था । सुखी लाल किसी
आफिस में बाबू थे । शादी के प्रारम्भ के दो तीन वर्ष तो व्याप्त अभावों व अल्प
वेतन में भी अच्छे से गुजरते गये । परन्तु एक लम्बी अवधी तक यह दाम्पत्य बच्चों
की किल्कोरियों से अनभिज्ञ रहा ,सुखीलाल भी आफिस से देर घर आने लगे ,कभी कभी तो
शराब के नशे में इतने ध्रुत आते कि आफिस के मित्र इन्हे पकड कर लाते , समय बीतता
रहा ,पत्नी रत्ना एक सुशील सीधी साधी गृहणी थी । जिसने कभी पति के अच्छे बुरे
कामों पर अनावश्यक हस्ताक्षेप नही किया था । सुखी एक उच्च शिक्षा प्राप्त महत्वाकाक्षी
पेशाई नौकरी वाले परिवार के युवक थे , जब कोई अच्छी नौकरी न मिली तो हिम्मत
हारकर ,बाबूगिरी की नौकरी कर ली परन्तु मानसिक रूप से वे परेशान रहते ,उनकी इस
मानसिकता की वजह से पत्नी रत्ना भी परेशान रहती ,परन्तु दोनो के विचारों में
जमीन आसमान का अन्तर था , एक को साहित्य से लगाव था, उच्च महत्वाकांक्षाये थी
,वही सीधी साधी इस गृहणी को न उच्च महत्वाकांक्षा थी न ही अनावश्यक मानसिक तनाव
को लेकर जीवन बिताना पसंद था । अत: रत्ना इस अल्पवेतन में ही गृहस्थी की गाडी
को किसी न किसी तरह से खींच ही लेती थी । वही सुखीलाल को भविष्य में कुछ कर
गुजरने की चाह ने उसके वर्तमान को नरक बना डाला था ,शायद इसमें उन दोनो प्राणीयों
की गलतीयॉ न थी । क्योंकि यदि इन दोनों के जीवन व मानसिकता का विश्लेषण किया
जाये तो वस्तु स्थिति साफ हो जाती है । उच्च महत्वाकांक्षायें कभी कभी इन्सान
के दु:ख का मूल कारण बनती है
सुखी के साथ भी यही था ,सुखीलाल
साहित्यानुरागी थे , साहित्य संसार में हमेशा डुबे रहते ,परन्तु आज के इस व्यवसायीक
साहित्यक प्रतिस्पृद्ध में जहॉ पाठकवर्ग से लेकर प्रकाशक वर्ग के मुंह ऐसे सस्ते
साहित्यों का बजार गरम था ,जिसने स्वस्थ्य साहित्यों के प्रकाशन पर एक प्रश्न
चिन्ह लगा दिया था ,आखिरकार प्रकाशक घाटे का सौदा क्यों करे उसे भी तो व्यापार
करना है ,फिर कथा ,कहानीयों से वह वाही अवश्य मिल जाये ,परन्तु सच्चाई तो यही
है कि इससे घर नही चलता । सुखीलाल के प्रयास निरर्थक साबित होते रहे , निरंतर
असफलताओं के बोझ तले दबे सुखीलाल मानसिक रूप से अस्वस्थ्य होते जा रहे थे ।
शराब के नशे में कभी कभी सुखीलाल शैतान बन जाते तोड फोड
करते तो कभी स्वंयम अपनी किस्मत को कोसते रहते ,आज भी सुखीलाल शराब पीकर लौटे
रात्री के नौ बजे थे ,दरवाजे के खटखटाते ही उनकी धर्मपत्नी जो पति के नशे में आने
के पदचापों व आदतों से परिचित हो चुकी थी , दरवाजा खोला
रत्ना को शराब पी कर आने पर आपत्ति न थी, परन्तु
यदि कोई शिकायत थी तो वह यह कि शराब के नशे में बको मत, जैसी ही लडखडाते हुऐ सुखीलाल ने कदम अन्दर
बढाया पत्नी ने हाथ पकड लिया साहित्यानुरागी इस संवेदनशील शराबी को यह बरदास्त
न हुआ ,कि कोई नशे में भी उसे सहारा दे ,सुखी ने हाथ छुडाते हुऐ, जोर से पत्नी को
एक तरफ धक्का देते हुऐ कहॉ , चल हट मुक्षे सहारा देती है ।
हॉ चलो अब सो जाओ, पत्नी ने सहज व स्वाभाविक ढंग से कहॉ था ।
अरे हरामजादी भूंखा ही सो जाऊ, चल खाना निकाल ।
पत्नी ने किसी प्रकार का जबाब
देना उचित न समक्षा और खाना लगा दिया सुखीराम खना कम ,मुहॅ ज्यादा चला रहे थे ,और
अपने कमाऊ पुरूष होने का अहसास, सीधी साधी पत्नी को जताते जाते ।
तू क्या जाने ? अरे देखना मै बाबू ही नही
मरूगां , मै कुछ कर के ही मरूगा , मगर तूम लोग ,क्या समक्षों बेबकूफ लोग, तुम्हारी
जिन्दगी तो खाना और सोना है ,कहॉ जिये कब मर गये किसी को पता भी नही चलेगा ।
पत्नी गऊ थी , कुछ न कहती ,क्योकि वह जानती थी
कि शराब के नशे में यदि कुछ कह दो तो समान तोडते ,मारते पीटते ,बेचारी कई बार पिट
चुकी थी ,मगर धन्य है भारत की नारी व हमारे भारतीय संस्कार जिसने कभी पति का
विरोध न किया , सुखीलाल खा पी कर सो जाते ।
दूसरे दिन उन्हे स्वयंम इस बात पर दु:ख होता,
शराब पीने पर उनकी आत्मा उन्हे दुत्कारती थी ,वे शराबी भी न थे ,मगर संग सौबत
में जब एक बार पी ली फिर उन्हे कहॉ होश रहता । सामानों के टूटने फूटने का जितना
गम उन्हे नही रहता ,जितना शराब पीने व पीकर बेजुबान पत्नी पर अत्याचार ,बर्बता का
बर्ताव करने का होता था ।
रत्ना ने निसंतान पॉच वर्ष तो काट दिये थे ,
इसी मध्य उनका स्थानान्तरण अपने गृह नगर हो गया । परिवार से लडकर अलग हुऐ इन
पति पत्नी ने अलग ही रहना उचित समक्षा व अलग किराये से रहने लगे । बर पक्ष व
पडोसियों द्वारा नि:संतान होने का ताना शायद रत्ना बरदांस्त भी कर लेती परन्तु
रत्ना स्वंय एक स्त्री थी और पति के होते हुऐ नि:संतान होने का दु:ख अब वह न
सहन कर सकी ,ममता कब जागी इस लोह नारी के शरीर में, जिसने पति देव के इतने जुल्म सह
कर भी कभी ऊफ न की, वह आत्म हत्या का विचार करने लगी ,पति से जब यह बात कहती तो
पति को भी अपने नि:संतान होने पर दु:ख होने लगता दोनो पति पत्नी आपस में समक्षौता
कर लेते और जीवन की गाडी पुन: अभावों में चल पडती । सुखी एक महत्वाकाक्षी युवक थे,
उनका विचार था ,जीते तो सभी है परन्तु कुछ कर के अपने अन्दाज में जीना ही जीवन
है । वे रात भर बडे बडे साहित्यो का अध्ययन करते लिखते । रत्ना को कभी कभी उनके
इस साहित्यानुराग एंव लेखन कार्य से धृणा होने लगती और वह विरोध कर उठती,
अब सो भी जाओं ।
सुखीलाल निरंतर असफलताओं के थपेडे खाते खाते
मानसिक तनाव के शिकार हो चूंके थे इस तनाव ने उनके मास्तिष्क पर मानसिक व्याधि
का घर जमा लिया था । उनको किसी का इस प्रकार से टोकना भी अब अच्छा न लगता था , और
वे विद्रोह कर उठते ,यहॉ तक कि वे किताब काफीयॉ फेंक देते व कभी कभी तो पत्नी को
मार पीट भी देते ,बेचारी पत्नी रो धोकर सो जाती , समय बीतता गया व इस नि:संतान
दम्पति के यहॉ एक सुन्दर कन्या का जन्म हुआ । कुछ समय पश्चात पुन: इस घर में
किलकोरियॉ गूंजी, इस बार एक सुन्दर पुत्र का जन्म हुआ । पति पत्नी अपने दोनो
बच्चों की बाल क्रिडाओं का पूरा आनन्द लेने लगे जीवन की गाडी पटरी पर आ चुंकी थी
। परन्तु होनी को कौन टाल सकता था ,एक दिन शराब के नशे में इतने धुर्त आये,
सुखीलाल कि उन्हे यह भी ख्याल न रहा कि घर में दो दो छोटे छोटे बच्चे है, आते
साथ ही बुरी बुरी गालीयॉ ससुराल पक्ष को देने लगे , पत्नी के विरोध करने पर सामान
तोडने फोडने लगे ,पत्नी भी उनकी इन आदतों से परेशान हो चुकी थी कुछ दिनो से रत्ना
में भी चिडचिडापन आते जा रहा था , सुखीलाल ने चिल्लाते हुऐ कहॉ मेरी कमाई है, मै
सब चीजों को तोड दूंगा ,क्या तुम्हारे बाप ने कमाया है , कि तुम्हारे दहेज का
है ,होनी को कौन टाल सकता था पलंग पर दोनो बच्चे सो रहे थे , सामानों के टुटने के
टुकड बच्ंचे के सिर में जा लगा ,रत्ना सब बर्दास्त कर सकती थी ,परन्तु मॉ की
ममता बच्चों का दु:ख न सह सकी ,रोते हुऐ कहॉ देखो दीपू को लग गई है खून, निकल रहा
है । अब क्या था सुखी ने खून से लथपथ रोते हुऐ बच्चे को डाटना शुरू किया व मारने
दौडे रत्ना ने पति का गला पकड ढकेल दिया, शराबी पति के स्वाभिमान को ढेस पहुची
,वो शराब के नशे में तो था ही जमीन पर जा गिरा , रत्ना जैसी कोमल सहनशील नारी ने
पति के भावीक्रोध के परिणामों को भांप लिया था और इस शंका से कि पुन: उठ कर ये बच्चों
पर हमला न कर दे रत्ना ने चिल्लाते हुऐ, पति की छाती पर बैठ कर उन्हे रोकने का
असफल प्रयास किया ,सुखी को पत्नी का यह व्यवहार अपमानजनक लगा उसने जैसे ही अपने
बचाव के उपक्रम में अपने हाथ का भरपूर मुक्का पत्नी के मुंह पर दे मारा रत्ना
की शक्ति व पकड जैसे ही कम हुई ,सुखी ने उठते ही यह विचार कर कि मै पति हूं इसे
अपनी कमाई खिलाता हूं ,मानसिक संताप के दबे हुऐ ज्वालामुखी में शराब ने उत्प्रेरक
का कार्य किया वही पत्नी के हाथों अपने स्वाभिमान को लुटते देख इस साहित्यानुरागी
संवेदनशील व्यक्ित जो कलम का उपासक था जाने किस दुष्टशक्ति या र्दुभाग्य के
वशीभूत होकर अपनी पत्नी को खून से लथपथ बेहोश हालत में बडबडाते हुऐ, किचिन से गैस
की रबड खीच दी ,रबड के खिचते ही गैस स्वतंत्र होकर अपने तीब्र बेग से पूरे कमरे
में भ्ार गयी थी, सुखी ने क्रोधावेश में गैस तो खोल दी थी, परन्तु वे घटना को
टालते या इस अप्रिय घटना के विषय में कुछ विचार करते गैस ने अपनी स्वाभाविकता का
ऐसा परिचय दिया कि गैस जाने कब बिजली के किसी तार से टकराई और देखते ही देखते एक
धमाके में सब कुछ राख हो गया था , सुखी दरवाजे पर थे इस लिये धमाके के साथ बाहर जा
गिरे, परन्तु दोनों बच्चे व पत्नी पूरी तरह से झुलस गयी , आग इतनी भीषण थी की
बुझाना संभव न था , सब कुछ जल कर राख हो गया था, पत्नी दोनों बच्चे इस अभागे के
दुष्कर्मो के कारण असमय ही काल कलवित हो गये थे ।
सुखी दिल के बुरे न थे मगर जैसे ही होश आया सब
कुछ लुट चूका था , कुछ शेष न था चाहते भी तो जो धटना घट चुकी है उसकी पूर्ति इस
जनम में न कर सकते थे, पागलों की तरह से चिल्लते हुऐ, ये क्या हो गया ! कभी पत्ती के जले शरीर से लिपटते, तो कभी बच्चों
के जले शरीर को छाती से चिपका कर विलाप करते , परन्तु अब रोने से क्या होना था
जो होना था वो तो हो चुका था । पागलों की तरह रत्ना के जले शरीर से लिपट कर चिल्लते
,रत्ना तू गऊ थी ,मै कभी तुक्षे सुख न दे सका ,मै कितना स्वार्थी था, अपना अपना
ही सोचता रहा, अपना नाम, कुछ कर गुजरने की स्वार्थ भावना,
पडौसियों के प्रयासों से सुखी को
अलग किया, शेष आंग पर काबू कर सुखी को बाहर लाये समक्षने का प्रयास भी किया, परन्तु
पडोसियों के मन मे सुखी के इस र्बताव के प्रति धृणा थी, पुलिस को किसी ने फोन किया
, पुलिस बेरहमी से उसे थाने ले गई आज सुखीलाल इसी अपराध की सजा काट रहे थे
!
डाँ.कृष्णभूषण सिंह चन्देल
म0न082 गोपालगंज
सागर मध्यप्रदेश
फो0 9926436304
krishnsinghchandel@gmail.com
Monday 19 December 2016
-: अब तो फि़जांओं में :-
-: अब तो फि़जांओं में :-
अब तो फ़िज़ओं में, वो मस्तीयॉ कहॉ ।
जहॉ देखो, बिरानी ही बिरानी छॉई है ॥
हुस्न के चहरे ब़ेंजान से हो गये ।
हर जव़ा दिलों पर उदासी, सी छॉई है ।
कॉफूर हो चला, खुशीयों का आलम ।
हर ज़ज़बादों में, बिमारी सी छॉई है ।।
मैंख़ानों में रोज, मेले लगते ।
इब़ाद्दगाहों में, खांमोंशी सी छॉई हैं ।।
अब तो फ़िज़ओं में, वो मस्तीयॉ कहॉ ।
जहॉ देखो, बिरानी ही बिरानी छॉई है ॥
मदरसों में, अब ताल़ीम नही ,
हर ज़ज़बादों, हर जुबानों में ।
अब सियासी, चालें छॉई है ॥
नफ़रत सी हो चली है दुनिया से ,
हर श़क्स के, चहरों पर खुदगजीं सी छॉई है ॥
बदलते वक्त ऐ आलम, का मिजाज तो देखों ।
इंसान की क्या,कुदरत ने भी,
रंग बदलने की कसम सी खाई है ॥
अब तों फि़जओं में, वो मस्तीयॉ कहॉ ।
जहॉ देखों बिरानी ही बिरानी छॉई है ॥
बुर्जुगों से भी अब कायदा नही ।
जांम से जांम टकराने, की तहजीब आई है !!
किसे कहते हों तुम इसान ,
यहॉ तो कपडों की तरह ,
बदलते रिस्तों की बॉढ सीं आई है ॥
हम अपनी ही पहचान भूल गये
गली कूचों से घरों तक,
अब नंगी तसवीरें छांई हैं ।
दूंसरों की तहजीब को गले लगाते
उन पर बरबादींयों, की शांमत आई है
अब तो फि़जओ मे, वो मस्तीयॉ कहॉ ।
जहॉ देखो, बिरानी ही बिरानी छॉई है ॥
कृष्ण सिंह चंदेल
सागर
मो0 - 9926436304
krishnsinghchandel@gmail.com
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